नापासर टाइम्स। संत शिरोमणि सेन जी की जयंती वैशाख मास में कृष्ण पक्ष की द्वादशी को मनाई जाती है। जो अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार 17 अप्रैल यानी कि आज सोमवार को मनाई जा रही है। इस दिन शहर, गांव, कस्बों में सेन जी महाराज की जयंती के अवसर पर भव्य समारोह के साथ विशाल जुलूस का आयोजन किया जाता है। कार्यक्रम में सामाजिक बंधु बड़ी संख्या में भाग लेते हैं।
संत सेन जी के जन्म के बारे में अलग-अलग मान्यताएं बताई गई हैं। लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व भारत में मध्यप्रदेश के बान्धवगढ़ में एक महान संत सेन महाराज का अवतार हुआ था। भक्तमाल के सुप्रसिद्ध टीकाकार प्रियदास के अनुसार एवं अगस्त संहिता 132 के आधार पर संत शिरोमणि सेन महाराज का जन्म विक्रम संवत 1357 में वैशाख कृष्ण-12 (द्वादशी) दिन रविवार को वृत योग तुला लग्न पूर्व भाद्रपक्ष को चन्दन्यायी के घर में हुआ था।
बालपन में इनका नाम नंदा रखा गया। नंदा बचपन से ही विनम्र, दयालु और ईश्वर में दृढ़ विश्वास रखते थे। इनके पिता का नाम श्री मुकन्द राय जी, माता का नाम जीवनी जी एवं पत्नि का नाम श्रीमती सुलखनी जी था। 1440 ईस्वी में इन्होंने अपनी देह को त्यागा था।
*ऐसा था संत शिरोमणि सेन जी का जीवन :-*
संत सेन के दो पुत्र व एक पुत्री का उल्लेख मिलता है। सेन रामानंद जी के समावत सम्प्रदाय से दीक्षित होने से श्री राम सीता और हनुमान जी की उपासना करते और अपने भजनों में उनका गुणगान करते थे। सेन संत भगवान के महान कृपापात्र भक्त, परम संतोषी, उदार और विनयशील व्यक्तित्व के थे।
*संत शिरोमणि सेन जी के उपदेश एवं धार्मिक यात्राएं :-*
महापुरुषों में शिरोमणि सेन जी महाराज का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। समकालीन भगत सेन जी ने श्री रामानन्द जी से दीक्षा ग्रहण कर तीर्थ स्थानो की यात्राएं ज्ञान उर्पाजन के लिए किया। इन तीर्थ स्थानों की यात्राओ के समय वे भेदभाव से ऊपर उठकर कई स्थानों पर प्रवचन करते और भटकी हुई मानवजाती को सत्य की राह पर लाने का प्रयास करते रहे।
संत सेन जी ने काशी भ्रमण के समय संत रविदास/रेदास के साथ भेंट की। काशी में ब्राह्राणो से शास्त्रार्थ में कर यह सिद्ध कर दिया कि कोई भी मनुष्य जाति के आधार पर छोटा बड़ा नहीं होता क्योंकि भगवान ने सबको बराबर बनाया है। जातियां तो कर्म के अनुसार मनुष्यों की देन है। उन्होंने मराठी भाषा में 150 अभंगों की रचना की।
उन्होनें जाति व धर्म से ऊपर उठकर कार्य किए और सच्ची मानवता का संदेश दिया। उन्होंने स्वयं भी ग्रहस्थ जीवन का निर्वाह करते हुए धार्मिक कर्तव्यों का आजीवन पालन किया। सेन शिरोमणि सेवा, प्रेम, भक्ति व मधुर व्यवहार को संतों का प्रमुख लक्षण मानते थें। समाज में फैली कुप्रथाओं की आलोचना करते और उन्हें दोष पूर्ण बताकर समाज सुधार के लिए हर सम्भव प्रयास करते थे।
उन्होंने सम्पूर्ण जाति को ब्रहम ज्योति का स्वरूप बताया तथा मानवता के प्रति सेवा भाव, दया, प्रेम और भक्ति की प्रेरणा तथा वह प्रेम मार्ग द्वारा ही ईश्वर को प्राप्त करना चाहते थे। धर्म व जाति के आधार पर किसी को छोटा बडा न मानकर सभी से समान रूप से प्रेम करना ही उनकी सबसे बडी साधना रही।
अंतिम समय में सैन समाज की महान विभुति परम श्रद्धेय परम संत सच्ची मानवता के पुजारी संत शिरोमणि सेन जी महाराज का अंतिम समया काशी में ही व्यतीत किया। यही पर सेन जी ने अपने आश्रम की स्थापना की तथा यहीं भक्ति में लीन रहने लगे। इस प्रकार सेन सागर ग्रंथ के अनुसार सेन जी माघ मास की एकादशी विक्रमी संवत 1440 को मोक्ष को प्राप्त कर गए।